बिजनौर है जाहरवीर की ननसाल

बिजनौर है जाहरवीर की ननसाल
हर साल लगता है रेहड़ ,गंज सहित कई जगह जाहरदीवान का मेला
लाखों श्रद्धालु जाहरवीर म्हाढ़ी पर चढ़ाते हैं निशान, प्रसाद
हिंदू व मुस्लिम दोनों संप्रदाय के लोग में माने जाते हैं जाहरवीर(जाहरपीर)

अशोक मधुप
बिजनौर]देश भर में गोगा जाहरवीर उर्फ जाहरपीर के करोड़ों भक्त हैं। सावन में हरियाली तीज से भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की नवमी तक देश भर में गोगा जाहरवीर उर्फ जाहरपीर इनकी म्हाढी पर श्रद्धालु आकर निशान चढ़ाते और पूजन अर्चन करते हैं। गोगा हिंदुओं में जाहरवीर है तो मुस्लिमों में जाहरपीर । दोनों संप्रदाय में इनकी बड़ी मान्यता है। यह बात कम ही लोग जानते हैं कि राजस्थान में जन्मे गोगा उर्फ जाहरवीर की ननसाल बिजनौर जनपद के रेहड़ गांव में है। इनकी मां बाछल जनपद में जहां जहां गई, वहां वहां आज मेले लगते हैं। जाहरवीर के नाना का नाम राजा कोरापाल सिंह था। गर्भावस्था में काफी समय गोगा जाहरवीर की मां बाछल अपने पिता के घर रेहड़ में रहीं।
रेहड़ के राजा कुंवरपाल की बिटिया बाछल और कांछल का विवाह राजस्थान के चुरू जिले के ददरेजा गांव में राजा जेवर सिंह व उनके भाई राजकुमार नेबर सिंह से हुआ। जाहरवीर के इतिहास के जानकारों के अनुसार जाहरवीर की मां बाछल ने पुत्र प्राप्ति के लिए गुरू गोरखनाथ की लंबे समय तक पूजा की। गोरखनाथ ने उन्हेें झोली से गूगल नामक औषधि निकालकर दी । कहा कि जिन्हें बच्चा न होता हो उन्हें यह औषधि खिला देना। रानी बाछल से थोड़ा-थोड़ा गूगल अपनी पंडितानी, बांदी और अपनी घोड़ी को देकर बचा काफी भाग खुद खा लिया। उनके द्वारा आशीर्वाद स्वरूप दी गुगल नामकी औषधि के खाने से जन्मे बच्चे का नाम गूगल से गोगा हो गया। वैसे रानी ने अपने बेटे का नाम जाहरवीर रखा। पंडितानी ने अपने बेटे का नाम नरसिंह पांडे और बांदी के बेटे का नाम भज्जू कोतवाल पड़ा। घोड़ी के नीले रंग का बछेड़ा हुआ। गोगा की मौसी के भी गुरू गोरखनाथ के आशीर्वाद से दो बच्चे हुए। ये सब साथ साथ खेलकर बड़े हुए। बाछल ने जाहरवीर को वंश परपंरा के अनुसार शस्त्र कला सिखाई और विद्वान बनाया। जाहरवीर नीले घोड़े पर चढ़कर निकलता और सबके साथ मिल जुलकर रहता। गुरू गोरखनाथ के ददरेजा आने पर जाहरवीर ने गुरू की सेवा की और फिर उन्हीं के साथ उनकी जमात में निकल गए। गुरू के साथ वह काबुल, गजनी, इरान, अफगानिस्तान आदि देशों में घूमे। उनके उपदेश हिंदू मुस्लिम एकता पर आधारित होते थे। भाषा के कारण वे मुस्लिमों में जाहरपीर हो गए। जाहरपीर का नीला घोड़ा और हाथ का निशान उनकी पहचान बन गए।
मां बाछल द्वारा किसी बात पर इन्हें घर न आने की शपथ दी गई थी, किंतु ये पत्नी से मिलने छिपकर महल आते। श्रावण मास की हरियाली तीज के अवसर पर मां के द्वारा देख लिए जाने और पीछा किए जाने पर हनुमानगढ़ के निर्जन स्थान में अपने घोड़े समेत जमीन में समा गए। उस दिन भाद्रपद के कृष्णपक्ष की नवमी थी ।तभी से देश के कोने कोने से आज तक प्रति वर्ष लाखों श्रृद्धालु राजस्थान के ददरेवा में स्थित जाहरवीर के महल एवं गोगामेढ़ी नामक स्थान पर उनकी म्हाढ़ी पर प्रसाद चढ़ाकर मन्नतें मांगते है। देश भर में जहां जहां जाहरवीर गए। वहां उनकी म्हाढ़ी बन गई। इन स्थान पर प्रत्येक वर्ष हरयाली तीज से शुरू होकर भाद्रपद के कृष्णपक्ष की नवमी तक जाहरवीर के विशाल मेले लगते हैं।
मान्यता है कि गर्भावस्था में रेहड़ में राजा कोरापाल के महल में जहॉ पर मां बाछल रही थी, वहॉ पर महल के नष्ट हो जाने के बाद जाहरवीर गोगा जी की म्हाढ़ी बना दी गई। यहॉ प्रत्येक वर्ष भाद्रपद की नवमी को हजारों श्रृद्धालु प्रसाद चढ़ाकर अपना सुखी वैवाहिक जीवन शुरू करते है। बिजनौर के पास गंज, फीना और गुहावर में भी इस अवधि में मेले लगते हैं। किंवदंति है कि जिस दंपति को संतान सुख नहीं मिलता उन्हें जाहरवीर गोगा जी की म्हाढ़ी पर सच्चे मन से मुराद मांगने पर संतान सुख अवश्य प्राप्त होता है।यह भी कहा जाता है कि गोगा पीर ने गर्भ में रहने के दौरान मां बाछल से कहा कि वह गंज में जाकर जात दे। बाछल ने यहां आकर जात दी।ये भी मान्यता है कि म्हाढ़‌ी पर आकर प्रसाद चढ़ाने से सांप नहीं काटता। घर में सांप का वास नहीं होता।एक मुगल राजा की महारानी को सांप के काटने के बाद यहां की म्हाढ़ी पर लाया गया था।
गंज के मेले की विशेषता है कि श्रृद्घालु आकर पहले गंगा स्नान करते हैैं। उसके बाद म्हाढ़ी पर प्रसाद या झंडी चढ़ाते हैं।यहां प्रसाद चढ़ाकर लगभग पांच किलो मीटर दूर नौलखा जातें हैं। नौलखा एक पुराना किला है। इसमें सैयद शुजात अली के मजार पर प्रसाद और झाड़ू चढ़ाते हैं। यहां मुर्गा भी चढ़ाया जाता है।काफी श्रद्घालु मजार पर पहले प्रसाद चढ़ाते बाद में म्हाढ़ी पर आते हैँ।
यह भी मान्यता है कि इस मौसम में सांप का प्रकोप ज्यादा होता है। इसलिए सांप के काटने के बचाव के इरादे से भी भक्त इनकी माढ़ी पर प्रसाद चढ़ाने आते हैं। जात देने वाले बच्चे या व्यक्ति को मोटे खादी के पीले कपड़े पहनाए जाते हैं। जात देने वाले के हाथ में जाहरदीवान का झंड़ा होता है और गर्मी से उसे राहत देने के लिए परिवार के सदस्य पंखों से हवा करते चलते हैं।
मजार पर प्रसाद चढ़ाने के बारे में लगभग 85 वर्षीय जहानाबाद निवासी रिटायर अध्यापक मोहम्मद अब्दुल वासे ने बताया पुराने बुजुर्ग बताते थे कि बाबा गोरखनाथ ने पहली धूनी यहीं लगाई थी और जाहर दीवान का पहला पड़ाव भी यहीं स्थान था l मुगल शासक की बेगम को सर्प ने डस लिया था । इसका उपचार बाबा जाहर दीवान ने किया था ।इससे खुश होकर मुगल शासक ने यह रियासत बाबा जाहर दीवान को उपहार में दे दी थी ।यही वजह है कि आज भी लोग नौलखा बाग या किला पर प्रसाद चढ़ाने आते हैं।
गंज निवासी राजेश्वर प्रसाद कौशिक 85 वर्ष ने बताया कि जहारवीर गोगा की यात्रा का प्रथम पड़ाव जहानाबाद स्थित नौलखा बाग में होने के कारण श्रद्धालु नौलखा बाग में भी प्रसाद चढ़ाकर मन्नत मांगते हैं।गंज निवासी लगभग 82 वर्षीय पूर्व फौजी सत्यपाल पाराशर भी यहीं बतातें हैं। उनके पूर्वज इस बात को बताते हैं कि मुगल बादशाह शाहजहां की पत्नी को सर्प ने डस लिया था l वही मुगल शासक के सैनिकों ने बताया कि एक साधु स्वभाव का महाराज( वर्तमान में जहानाबाद) गंगा किनारे अपनी यात्रा के दौरान विश्राम किए हुए हैं । यहां रानी को लाया गया ।रानी का इलाज कर उनके प्राणों की रक्षा कीl इससे खुश होकर राजा ने पूरी रियासत उपहार स्वरूप बाबा जाहर दीवान को दे दी थी l इसीलिए लोग नौलखा पर प्रसाद चढ़ाते हैं इस मेले में जात-पात को भूलकर हिंदू-मुस्लिम दोनों लोग प्रसाद चढ़ाते हैं।
झंडे के साथ पीले वस्त्र पहनकर पंखे से हवा करते हुए चलते हैं भक्त
गंज की म्हाढ़ी के पुजारी श्रवण कुमार उपाध्याय का कहना है कि वे पूर्वजों से सुनते आ रहे हैं। गोगा पीर ने गर्भ में रहने के दौरान मां बाछल से कहा कि वह गंज में जाकर जात दे। बाछल ने यहां आकर जात दी। तब से यहां मेला लगता है। यहां दिल्ली राजस्थान ,उत्तरांचल पूरब आ‌दि से बड़ी संख्या में श्रद्घालु आते हैं।यहां आकर परिवार बच्चे की कामना के लिए प्रसाद तो चढ़ाते ही हैं। बच्चा होने पर वे उसकी जात देने आतें हैं। जात देने वाले बच्चे या बड़े घर पर पूजा अर्चन कर पीले या सफेद कपड़े पहन कर चलता है। परिवार भी प्रायःऐसे ही कपड़े पहनता है। इन कपड़ों पर हल्दी से हाथों के पंजे की छाप लाई जाती है। जात देने वाले के हाथ में लाल रंग के कपड़े लगी झंडी होती है। दूसरे हाथ में हवा करने वाला पंखा होता है। पंखा प्रायः परिवार के सभी सदस्य लिए होते हैं।ये पंखे से एक दूसरे को , रास्ते में मिलने वालों को हवा करते चलतें ‌ हैं। पंखे से हवा करना सेवा भाव में आता है। यहां माढ़ी पर आकर झंडी के कपड़ में प्रसाद और श्रद्घा के अनुसार रकम बांध कर चढ़ाते हैं। इस झंडी के साथ दी पंखा भी यहीं चढ़ा दिया जाता है। मजार पर चढ़ती है झाडू मुर्गा और प्रसाद
मजार के फकीर नूर शाह का कहना है कि मजार पर झाडू, प्रसाद चढाया जाता है। कुछ मुर्गा भी चढ़ातें हैँ। मान्यता है कि मजार पर झाड़ू चढ़ाने से शरीर पर यदि कहीं मस्सा हो तो मजार की धूल लगाने से वह मस्सा रात में ही गायब हो जाता है। पिछली पांच पीढ़ियों से नौलक्खा मजार का चढ़ावा हम लोग ही लेते हैं l साफ-सफाई और पुताई हम ही करते हैं।
90 वर्षीय गंज निवासी विमल शरण अग्रवाल जी का कहना है कि जब से मैंने होश संभाला है तब से ही इस मेले का आयोजन होते देख रहा हूं ।वही दूर दराज से आए श्रद्धालु अपनी मन्नत को पूरा होने पर पीले वस्त्र पहनकर नंगे पांव आते हैं l
लगभग 94 वर्षीय गंज निवासी सत्येंद्र शरण ने बताया कि आज से 70 वर्ष पूर्व तक यातायात का साधन न होने से श्रद्धालुगण पैदल वह बैलगाड़ी से मेले में प्रसाद चढ़ाने आते थे l हाथ में पंखे लिए लोगों की सेवा करते हुए इस मेले में आते l इस मेले की सबसे बड़ी खूबी है कि बिना जाती भाव के सभी धर्मों के लोग श्रद्धा पूर्वक प्रसाद चढ़ाते हैं । पहले 12 महीने गंगा घाट पर ही गंगा बहती थी l श्रद्धालु स्नान करके प्रसाद चढ़ाते थे l अब स्नान को दो किलोमीटर दूर जाना पड़ता है।

अशोक मधुप

29 july 2017   में प्रकाशित  मेरा लेख

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