गजलकार व साहित्यकार दुष्यंत त्यागी

सुप्रसिद्ध गजलकार  व साहित्यकार दुष्यंत त्यागी की पुण्यतिथि पर विशेष
हाथों में अंगारों के लिए सोच रहा था,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।।
आम आदमी के दु:ख सुख को शिद्दत से महसूस जब किसी शायर और लेखक की कलम करती है तो कालजयी कृतियां जन्म लेने लगती हैं। बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा। सदियों के बाद ही कोई व्यक्तित्व वक्त का सांचा बदलने आता है। डॉ.इकबाल ने जो कहा था वो कितना बड़ा सच था। आम आदमी के हाथों में अंगारे एवं सीने में पीड़ा की गंगा अविरल रूप से बहती रहती है। जब पीड़ा हिमालय का रूप ले लेती है तो कह उठती है :
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
जी हां, ये दुष्यन्त कुमार ही थे, जिन पर आज जनपद बिजनौर ही नहीं, जहां राजपुर नवादा गांव में उनका जन्म १ सितंबर १९३३ को हुआ था, बल्कि पूरा देश गर्व करता है। और करे भी क्यों न, ये वो लाडला गजलकार है, जिसने गजल के मानी ही बदल दिए, नहीं तो गजल का शाब्दिक अर्थ महबूब से बातें करना था। दुष्यंत ने गजल को महबूब के गेसू एवं रुखसारों से निकालकर यथार्थ की जमीं पर उतार दिया।
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं,
वो गजल आपको सुनाता हूं।
तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थर थराता हूं।
तभी तो उन्होंने कहा था कि मेरे शेर उस भाषा की तर्जुमानी करते हैं, जिसे मैं बोलता हूं।
और इसलिए जो ख्याति और लोकप्रियता दुष्यंत को प्राप्त हुई, वो अद्वितीय है।
मां का नाम श्रीमती रामकिशोरी देवी एवं पिता का नाम चौधरी भगवत सहाय था। शिक्षा गांव की प्राइमरी पाठशाला से प्रारंभ होकर नहटौर, चंदौसी और अंत में उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संपन्न हुई। यहीं पर दोस्ती कमलेश्वर एवं मार्कण्डेय से हुई। उन दिनों की प्रसिद्ध तिकड़ी। कक्षा १० से ही परदेशी उपनाम से विधिवत लेखन सुमित्रानंदन पंत को अपना गुरू एवं स्वयं को एकलव्य मानकर                                                                               प्रारंभ कर दिया।
१९५५ में कल्पना पत्रिका में नई कहानी परंपरा और प्रयोग शीर्षक से ऐतिहासिक आलोचना का प्रकाशन, १९५६ में सूर्य का स्वागत नामक शीर्षक से कविताओं का संचयन हुआ। काव्य संग्रह आवाजों के घेरे, काव्य नाटक एक कंठ विषपाई, छोटे-छोटे सवाल और उपन्यास आंगन में एक वृक्ष प्रकाशित हुए। सर्वाधिक लोकप्रियता उन्हें गजल संग्रह साये में धूप से मिली, जो आज भी अनवरत रूप से जारी है।
दुष्यंत कुमार ने सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों को गजल का विषय बनाया और भरपूर अभिव्यक्ति दीं। ये केवल दस्तावेज ही बनकर नहीं रहे, बल्कि गजल की कलात्मकता के उदाहरण बन गए।
गूंगे निकल पड़े हैं जुबां की तलाश में,
सरकार के खिलाफ ये साजिश तो देखिए।
उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें,
चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिए।
दुष्यंत कुमार की गजलें आज ४० वर्ष अंतराल के बाद भी उतनी ही प्रासंगकि हैं जितनी तब थीं। तभी तो शंकराचार्य से लेकर अन्ना हजारे तक संसद से लेकर यूएनओ तक उनकी गजलों के शेर कोड किए जाते हैं।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
गांव की रामलीला में लक्ष्मण की भूमिका से लेकर गंगा स्नान मेले में बैलगाड़ी में बैठकर जाना और चाव से खिचड़ी खाना और फिर शाम को गंगा में तैरते दीयों को देखकर कालजयी गजल कह जाना आज भी यादों को झकझोर देता है।
हौले-हौले पांव हिलाओ, जल सोया है छेड़ो मत।
हम सब अपने अपने दीपक यहीं सिराने आएंगे।
लेकिन उनका ऐतिहासिक घर रामजानकी भवन आज भी उनकी राह देखता है। वर्षों से बंद वो महल अब खंडहर में तब्दील होता जा रहा है। उन्हें शायद इसका एहसास था।
आज विरान अपना घर देखा,
तो कई बार झांककर देखा,
होश में आ गए कई सपने,
आज हमपने वो खण्डहर देखा।
दुष्यंत कुमार ने सभी को आशांवित होने का महामंत्र दिया।
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।

प्रस्तुति - मनोज त्यागी, आलोक त्यागी

३० दिसम्बर के अमरउजाला में प्रकाशित लेख

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